In Search of an End

 

मैं खुद ही अपनी ज़िंदगी से ऊब गया हूँ,

हर सुबह उठना,

जैसे एक और अनचाही कहानी

फिर से दोहराई जा रही हो।

नींद में भी चैन नहीं मिलता,

और जागते हुए भी

सपनों का शोर ख़त्म नहीं होता।


हर कदम जैसे एक बोझ बन गया है,

खुद को ढोते हुए

मैं थक चुका हूँ।

क्या यही जीवन है?

बिना रंग, बिना उमंग,

सिर्फ समय की परतों में

दबा हुआ एक खालीपन।


लोग कहते हैं,

"ज़िंदगी खूबसूरत है",

पर मुझे हर चीज़ में

सिर्फ धुंध नजर आती है।

रिश्तों में उलझनें हैं,

और बातों में खोखलापन।

मैंने तलाश की थी प्यार की,

विश्वास की,

लेकिन यहाँ सिर्फ छल और भ्रम का संसार है।


अब जीने का मकसद क्या है,

जब हर कोशिश

बस एक विफलता बनकर रह जाती है।

सोचा था,

खुद को प्रेरणा दूँ,

नई शुरुआत करूँ,

पर अब खुद से भी कोई उम्मीद नहीं रही।

मैं टूटा हूँ,

और इस टूटन में

कुछ भी जोड़ने जैसा नहीं बचा।


मौत की तरफ देखता हूँ,

शायद वो कोई रास्ता हो,

पर वो भी दूर ही रहती है,

कहती है—

"जीना है, चाहे जैसे भी हो।"

और मैं चलता रहता हूँ,

बिना किसी दिशा के,

बिना किसी मकसद के,

बस इस इंतजार में

कि कभी तो ये सफर खत्म होगा।


इस दुनिया का कोई सच

मेरे दिल को नहीं छूता,

यहाँ हर चेहरे पर एक नकाब है,

हर हंसी में दर्द छिपा है।

और मैं,

खुद के अंधेरे में

खोता जा रहा हूँ।


अब शायद कोई राह नहीं बची,

न कोई उम्मीद,

न कोई सपना,

सिर्फ एक लंबा,

बिना अंत का रास्ता,

जिस पर मैं 

चलने को मजबूर हूँ।

मैं खुद ही अपनी ज़िंदगी से ऊब गया हूँ।


कवी - विजय कमल भालेराव


In Search of an End by vijay bhalerao





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